हम कितने स्वार्थी हो गए हैं कि होटल, ढाबा, दुकान, फैक्ट्री, बस स्टैंड पर ऐसे बच्चों को काम करते देख कर इन पर बस लापरवाह नजर डाल कर वापस वैसे ही पत्थर दिल सामान्य बने रहते हैं, बेचैन होकर वहीं पर रो नहीं देते!
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