यह तो सार्वजनिक जीवन की बात हुई। हम अपने व्यक्तिगत जीवन में भी कितने संकुचित, असहिष्णु और दुराग्रही विचारों के हो जाते हैं। कोई हमें हमारे हित की बात कहता है तो हमारी सोच उस बात में सामने वाले का स्वार्थ खोजती है।
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