गांवों से नगर, नगरों से महानगर और कंक्रीट के जंगलों में पलायन करने को मजबूर विस्थापित जिंदगानियां दम तोड़ रही हैं। हताशा, अवसाद, आत्महत्या, चोरी-डकैती, झपटमारी, बलात्कार, हत्या और न जाने किन-किन दुष्कर्मों में लिप्त हो जाने को अभिशप्त इंसान समझ ही नहीं पा रहा है कि आखिर उसे चाहिए क्या!
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