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दुनिया मेरे आगेः यथार्थ के नाम पर

क्या साहित्य का उद्देश्य उदात्त का प्रस्तुतिकरण नहीं होना चाहिए? क्या यथार्थ के नाम पर स्थितियों को पूरी तरह भदेस भाषा में प्रस्तुत करना ही आखिरी विकल्प है? फिर सस्ते और ‘पीले साहित्य’ और सद्-साहित्य के बीच का फर्क क्या रह जाएगा? क्या भाषा की कोई जिम्मेदारी लेखक की नहीं बनती है और खासकर साहित्यकार की?

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