बहुधा हम देखते हैं कि मनुष्य की जिंदगी का महत्त्वपूर्ण हिस्सा इस खालीपन को भरने का ही प्रयास है। खालीपन शब्द संकुचित अर्थ में नहीं लिया जा सकता, उसी तरह जैसे पाप और पुण्य में एक हल्की-सी लकीर खिंचते ही पूरा चरित्र बदल जाता है। ठीक वैसे ही खालीपन एक सचेतन प्रक्रिया है, संकुचन नहीं।
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