कोई मजदूर बेहतर जीवन की तलाश में जब शहरों की ओर आता है, तो वह सिर्फ गांव नहीं छोड़ता, उसके साथ एक पूरा सांस्कृतिक जीवन पीछे छूट जाता है। वह जिस परिवेश में पला-बढ़ा होता है, उस वातावरण की ऊष्मा छूटती है, परिजनों का स्नेह छूटता है, संगी-साथियों का साथ छूटता है और छूट जाती है उसकी अपनी पहचान। इन सब खालीपन को ढोने के बावजूद वह कुछ भौतिक संसाधनों को हासिल कर लेना चाहता है, ताकि कम से कम अगली पीढ़ी की दिक्कतें कम हों।
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