अस्सी साल पहले पैंतीस करोड़ लोगों के लिए जिस ग्राम्य स्वराज की कल्पना की गई थी, उसे अब एक सौ पैंतीस करोड़ लोगों के लिए मुफीद नुस्खा मान लिया गया। इन हितैषियों की मेहरबानी से वे अपने गांव पहुंचे तो कई जगहों पर गांव की सीमा पर ही ग्रामीणों ने उनका रास्ता रोक लिया। महानगरों में की गई नकद कमाई से आ गए आत्मविश्वास की चमक की जगह गांव के सामंती ऐंठ में अकड़े भूमिधर उनके चेहरों पर हीनताबोध देखना चाहते थे।
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