सूचना तकनीक ने चौबीसों घंटे और बारहों महीने बोलते रहने की व्यवस्था खड़ी कर दी है। इससे सुनने-समझने की सभ्यता के सामने संकट आ गया है। जब कहीं कोई सुनने या समझने को तैयार ही नहीं, तो लोगों ने बोलना ही कम कर दिया।
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