साल 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश की सियासत में उथल-पुथल का दौर शुरू हो गया। इंदिरा की हत्या के बाद पीएम की कुर्सी पर उनके बेटे राजीव गांधी बैठे। राजीव की ताजपोशी के बाद कई दिग्गज कांग्रेसी नेताओं की नाराजगी भी सामने आई। सियासत में राजीव के कम अनुभव के बहाने उन्हें निशाना बनाया जाने लगा। लेकिन कुछ ही महीनों में हुए लोकसभा चुनाव में उन्होंने इतिहास रच दिया था।
राजीव गांधी के नेतृत्व में हुए इन चुनावों में कांग्रेस को 400 से ज्यादा सीटें मिली थीं। उधर, साल 1984 में ही उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के कद्दावर नेता नारायण दत्त तिवारी मुख्यमंत्री बने, लेकिन कुछ ही समय में उन्हें कुर्सी छोड़नी पड़ी थी। तिवारी की गिनती उत्तर भारत के बड़े नेताओं में होती थी और ‘बाबूओं’ के बीच भी उनका खौफ था। सियासी गलियारों में कहा जाता था कि उनके सामने आने वाली सभी फाइलों को वह खुद जांचते थे और गलती होने पर लाल पेन से निशान लगा दिया करते थे।
नारायण दत्त तिवारी राजीव गांधी के करीबी नेताओं में से एक थे। यही वजह थी साल 1986 में बोफोर्स घोटाले में नाम आने के बाद राजीव, एनडी तिवारी को प्रधानमंत्री की कुर्सी सौंपना चाहते थे। डीपी नौटियाल ने अपनी किताब ‘नारायण दत्त तिवारी- ए लाइफ स्टोरी’ में इसका जिक्र किया है। नौटियाल लिखते हैं, ‘बोफोर्स पर बवाल के बाद रक्षा मंत्री वी.पी सिंह ने इस्तीफा दे दिया था। अब इसकी आंच प्रधानमंत्री तक पहुंच गई थी। कांग्रेस के बड़े नेताओं ने सलाह दी कि राजीव गांधी अपने पद से दो-तीन महीने के लिए इस्तीफा दे दें।’
एनडी तिवारी ने कर दिया था मना: विरोधी दल राजीव गांधी को इस मुद्दे पर संसद से लेकर सड़क तक घेर रहे थे। इसी बीच दो-तीन महीनों के लिए किसे प्रधानमंत्री बनाया जाए, इसके दावेदार सामने आए। एक नाम था नरसिम्हा राव और दूसरा था एनडी तिवारी का। राजीव नहीं चाहते थे कि राव को प्रधानमंत्री बनाया जाए क्योंकि इससे उत्तर भारत में कांग्रेस का वोट छिटक सकता था। इसलिए उन्होंने एनडी तिवारी को चुना। एनडी तिवारी के सामने इस बात को रखा गया तो वो बिल्कुल सहमत नहीं हुए।
एनडी तिवारी ने अपनी सफाई पेश करते हुए कहा था कि राजीव गांधी को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा नहीं देना चाहिए, अगर ऐसा होता है तो जनता के बीच इसका गलत मैसेज जाएगा। लोग सोचेंगे कि राजीव संकट से भागने का प्रयास कर रहे हैं। हालांकि बाद में ऐसा ही हुआ और राजीव गांधी ने पद पर बने रहने का फैसला किया। साल 1989 के चुनाव में कांग्रेस को घोटाले के आरोपों से उत्पन्न हुई विरोधी लहर का खामियाजा भुगतना पड़ा, सीटें कम हुईं और बीजेपी के समर्थन से वी.पी सिंह देश के प्रधानमंत्री बने थे।
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